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मौसम दीन न दीन हिते

मौसम दीन न दीन हितय, तुम समान रघुवीर।
अस विचार रघुवंश मणि, हरहू विसम् भव पीर।।

कामहि नारी पियारी जिमी, लोभहि प्रिय जिमि दाम।
तुम रघुनाथ निरंत रहो, प्रिय लगहु मोहि राम।।

प्रनत पाल रघुवंश मणि, करुणा सिंधु खरार,।
गये शरण प्रभु राखी हैं, सब अपराध विसारि।।

श्रवण सुनत सुन आई हों, प्रभु भंजन भव पीर।
त्राहि त्राहि आरत हरण, शरण सुखद रघुवीर।।

अर्थ न धर्म न काम रूचि, गति न चहो निर्वान।
जनम जनम रति राम पदय, यह वरदान न आन।।

बार बार वर मगहु, हरसु देव श्री रंग।
पद सरोज अन पायनि, भक्ति सदा सत संग।।

वरनी उमा पति राम गुण, हरस् गये कैलास।
तब प्रभु कपिन दिवाये हैं, सब विधि सुख प्रद वास।।

एक मंद में मोह बसे, कुटिल हृदय अज्ञान।
पुनि प्रभु मोहि न विसरियो, दीन बंधु भगवान।।

नहीं विद्या नहीं बाहुवली, नहीं खरचन् को दाम।
मोसे पतित अपंग की, तुम पति राखो राम।।

कोटि कल्प काशी बसे, मथुरा कल्प हजार।
एक दिवस सरजू बसे, बसे न तुलसी दास।।

राम जी नगरिया राम की, बसे गंग के तीर।
अटल राज महाराज की, चौकी हनुमत वीर।।

कहा कहो छवि आपकी, भले विराजे नाथ।
तुलसी मस्तक जब नवे, धनुष बाण लिए हाथ।।

धनुष बाण हाथन लियो, शीश मुकुट धर शीश।
कृपा कियो दर्शन दियो, तुलसी नवावे शीश।।

कृत मुरली कृत चंद्रिका, कृत गोपिन को साथ।
अपने जन के कारने, श्री कृष्ण भये रघुनाथ।।

राम वाम जस जानकी, लखन दाहिनी ओर,।
ध्यान सकल कल्याण मणि, सुर पुर तुलसी तोर।।

अवध धाम धामन पति, अवतारण पति राम।
सकल सिद्धि पति जानकी, श्री दासन पति हनुमान।।

अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलुका कह गये, सबके दाता राम।।

राम जी झरोखा बैठके, सबको मुजरा लेन।
जाकी जेंसि चाकरी, प्रभु ताको तेंसो देन।।

अस प्रभु दीन न बंधु हरि, कारण रहित कृपाल।
तुलसी दास सठ ताहि भजो, छोड़ कपट जंजाल।।

गुरु मूरति मुख चंद्रिका, सेवक नयन चकोर।
अष्ट प्रहर निरखत रहु, गुरु चरनन ओर।।

चलो सखी वहा जाइये, जहाँ वषे ब्रज राज।
गोरस बेचत हरि मिले, एक पंथ दो काज।।

चित्र कूट चिंता हरण, गये सरजू के तीर।
वहाँ कछुक दिन राम रहे, सिया लखन रघुवीर।।

वृन्दावन सो वन नहीं, नंदगाव सो गाव।
वंशी वट सो वट नहीं, मोरे कृष्ण नाम से नाम।।

धनुष चड़ाये राम ने, चकित भये सब भूप।
मगन भई सिया जानकी, देख रामजी को रूप।।

व्रज चौरासी कोस में, चार धाम निज धाम।
वृन्दावन और अबध् पुरी, वरसाने नंद गाव।।

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध्।
तुलसी चर्चा राम की, हरहु कोटि अपराध।।


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