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ढाँपि मुख कामरि रूठे लाल।

ढाँपि मुख कामरि रूठे लाल।
उठहु लाल बेला गोचारण, द्वार टेरि रहे ग्वाल।
कैसेहुँ उठत न, उठत, न बोलत, रिस भौंहन बल भाल।
'बात कही किन कहा?' मातु कह, उठि बोले ततकाल।
'सुनु मैया ! मोते कह भैया', इमि कहि रुदत गुपाल।
बिनु पितु मातु आपु कह मो कहँ, हँसत ग्वाल दै ताल।
बाबा तोहिं परो पायो कहुँ, कहँ लौं कहौं कुचाल।
तू मैया ! मुसकाति बात सुनि, है यामे कछु जाल।
जो जस होत 'कृपालु' कहत तस, यसुमति कह सुनु लाल।।

भावार्थ - श्यामसुन्दर प्रातः काल होने पर भी आज नहीं उठे, एवं अपने मुख को काले कंबल से ढाँककर रूठे हुए लेटे हैं। मैया कहती है, 'अरे लाला! गायों को चराने का समय हो गया। शीघ्र उठ, देख तो ग्वाल बाल द्वार पर खड़े तुझे पुकारते हुए प्रतीक्षा कर रहे हैं।' श्रीश्यामसुन्दर यशोदा के उठाने पर भी नहीं उठे, बड़ी देर बाद जब उठे भी, तब भी रूठने का कारण नहीं बताया। भौहों के बीच में बल पड़े हुए हैं तथा अत्यन्त ही क्रुद्ध हैं। तब मैया ने कहा, 'अरे लाला ! बता तो सही तुझसे किसने क्या कहा है?' तब श्यामसुन्दर तत्क्षण ही बोल पड़े, 'अरी मैया ! सुन, मुझसे भैया कहते हैं- ' बस इतना ही कहकर श्यामसुन्दर हिचकियाँ भर-भरकर रोने लगे। थोड़ी देर बाद श्रीकृष्ण ने कहा, 'मेरी मैया! मुझे बलदाऊ भैया कहते हैं कि तेरे तो माता-पिता ही नहीं हैं एवं यह सुनकर सभी ग्वालबाल हँसते हुए ताली बजाते हैं। मैया ! बलदाऊ भैया कहते हैं कि अरे कन्हैया ! तुझे तो नन्दबाबा ने कहीं पड़ा हुआ पाया है। मैं उनकी कुचालों को कहाँ तक कहूँ? मैया ! तू भी मेरी बात सुनकर मुस्कराती है जिससे मुझे और भी शंका होती है। अवश्य कुछ-न-कुछ बात है।' 'कृपालु' कहते हैं कि तब यशोदा ने कहा, 'अरे लाला ! जो जैसा होता है वह सबको वैसा ही समझता है।' इसका एक अभिप्राय तो यह है कि बलराम को ही बाबा ने पड़ा हुआ पाया है, तुझको नहीं। दूसरा अभिप्राय यह है कि, 'अरे लाला! तू जो मेरे लिए कहता है कि मैया इसमें कुछ-न-कुछ अवश्य जाल है, तो तू सदा ही योगमाया से युक्त जाल किया करता है, अतएव मुझे भी वैसा ही समझता है।

पुस्तक : प्रेम रस मदिरा, श्री कृष्ण बाल लीला माधुरी
पृष्ठ संख्या-158
पद संख्या-71

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