शीश नवा अरिहंत को, सिद्धन करूँ प्रणाम ।
उपाध्याय आचार्य का ले सुखकारी नाम। ।
सर्व साधु और सरस्वती, जिन-मंदिर सुखकार ।
अहिच्छत्र और पार्श्व को, मन-मंदिर में धार ।।
पार्श्वनाथ जगत्-हितकारी, हो स्वामी तुम व्रत के धारी ।
सुर-नर-असुर करें तुम सेवा, तुम ही सब देवन के देवा ।।१।।
तुमसे करम-शत्रु भी हारा, तुम कीना जग का निस्तारा ।
अश्वसैन के राजदुलारे, वामा की आँखों के तारे ।।२।।
काशी जी के स्वामी कहाये, सारी परजा मौज उड़ाये ।
इक दिन सब मित्रों को लेके, सैर करन को वन में पहुँचे ।।३।।
हाथी पर कसकर अम्बारी, इक जगंल में गयी सवारी ।
एक तपस्वी देख वहाँ पर, उससे बोले वचन सुनाकर ।।४।।
तपसी! तुम क्यों पाप कमाते, इस लक्कड़ में जीव जलाते ।
तपसी तभी कुदाल उठाया, उस लक्कड़ को चीर गिराया ।।५।।
निकले नाग-नागनी कारे, मरने के थे निकट बिचारे ।
रहम प्रभु के दिल में आया, तभी मंत्र-नवकार सुनाया ।।६।।
मरकर वो पाताल सिधाये, पद्मावति-धरणेन्द्र कहाये ।
तपसी मरकर देव कहाया, नाम ‘कमठ’ ग्रन्थों में गाया ।।७।।
एक समय श्री पारस स्वामी, राज छोड़कर वन की ठानी ।
तप करते थे ध्यान लगाये, इक-दिन ‘कमठ’ वहाँ पर आये ।।८।।
फौरन ही प्रभु को पहिचाना, बदला लेना दिल में ठाना ।
बहुत अधिक बारिश बरसाई, बादल गरजे बिजली गिराई ।।९।।
बहुत अधिक पत्थर बरसाये, स्वामी तन को नहीं हिलाये ।
पद्मावती-धरणेन्द्र भी आए, प्रभु की सेवा में चित लाए ।।१०।।
धरणेन्द्र ने फन फैलाया, प्रभु के सिर पर छत्र बनाया ।
पद्मावति ने फन फैलाया, उस पर स्वामी को बैठाया ।।११।।
कर्मनाश प्रभु ज्ञान उपाया, समोसरण देवेन्द्र रचाया ।
यही जगह ‘अहिच्छत्र‘ कहाये, पात्रकेशरी जहाँ पर आये ।।१२।।
शिष्य पाँच सौ संग विद्वाना, जिनको जाने सकल जहाना ।
पार्श्वनाथ का दर्शन पाया, सबने जैन-धरम अपनाया ।।१३।।
‘अहिच्छत्र‘ श्री सुन्दर नगरी, जहाँ सुखी थी परजा सगरी ।
राजा श्री वसुपाल कहाये, वो इक जिन-मंदिर बनवाये ।।१४।।
प्रतिमा पर पालिश करवाया, फौरन इक मिस्त्री बुलवाया ।
वह मिस्तरी माँस था खाता, इससे पालिश था गिर जाता ।।१५।।
मुनि ने उसे उपाय बताया, पारस-दर्शन-व्रत दिलवाया ।
मिस्त्री ने व्रत-पालन कीना, फौरन ही रंग चढ़ा नवीना ।।१६।।
गदर सतावन का किस्सा है, इक माली का यों लिक्खा है ।
वह माली प्रतिमा को लेकर, झट छुप गया कुएँ के अंदर ।।१७।।
उस पानी का अतिशय-भारी, दूर होय सारी बीमारी ।
जो अहिच्छत्र हृदय से ध्यावे, सो नर उत्तम-पदवी पावे ।।१८।।
पुत्र-संपदा की बढ़ती हो, पापों की इकदम घटती हो ।
है तहसील आँवला भारी, स्टेशन पर मिले सवारी ।।१९।।
रामनगर इक ग्राम बराबर, जिसको जाने सब नारी-नर ।
चालीसे को ‘चंद्र’ बनाये, हाथ जोड़कर शीश नवाये ।।२०।
नित चालीसहिं बार, पाठ करे चालीस दिन ।
खेय सुगंध अपार, अहिच्छत्र में आय के ।।
होय कुबेर-समान, जन्म-दरिद्री होय जो ।
जिसके नहिं संतान, नाम-वंश जग में चले ।।