सिया राम मय सब जग जानी,
करहु प्रणाम जोरी जुग पानी।
मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रबहु सुदशरथ अजर बिहारी।
दीन दयाल बिरिदु संभारी,
हरहु नाथ मम संकट भारी।
सीता राम चरन रति मोरे,
अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरे।
सनमुख होइ जीव मोहि जबही,
जन्म कोटि अघ नासहिं तबही।
अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँती,
सब तजि भजनु करौं दिन राती।।
मंगल मूर्ति मारुती नंदन,
सकल अमंगल मूल निकंदन,
बिनु सत्संग विवेक न होई,
रामकृपा बिनु सुलभ न सोई।
होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा,
तब रघुनाथ चरन अनुरागा।
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना,
सत हरि भगति जगत सब सपना।
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना,
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना।
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा,
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।
देह धरे कर यह फल भाई,
भजिअ राम सब काम बिहाई।
मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई,
भजत कृपा करिहहिं रघुराई।
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई,
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।
जहाँ सुमति तहाँ सम्पति नाना,
जहाँ कुमति तहाँ बिपति निदाना।
कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ,
मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥
कवित विवेक एक नहिं मोरे,
सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे।
जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं,
तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं।
बरषहिं राम सुजस बर बारी,
मधुर मनोहर मंगलकारी॥
जय जय राम, सियाराम,
जय जय राम, सियाराम,
जय जय राम, सियाराम,
जय जय राम, सियाराम.....