कैकेयी का अनुताप | लौट चलो तुम घर को

"यह सच है तो अब लौट चलो तुम घर को |"
चौंके सब सुनकर अटल कैकेयी स्वर को |
सबने रानी की ओर अचानक देखा,
बैधव्य-तुषारावृता   यथा   विधु-लेखा |
बैठी थी अचल तथापि असंख्यतरंगा ,
वह सिंही अब थी हहा ! गौमुखी गंगा ---
"हाँ, जनकर भी मैंने न भारत को जाना ,
सब सुन लें,तुमने स्वयं अभी यह माना |
यह सच है तो फिर लौट चलो घर भईया ,
अपराधिन मैं हूँ तात , तुम्हारी मईया |
दुर्बलता का ही चिन्ह विशेष शपथ है ,
पर ,अबलाजन के लिए कौन सा पथ है ?
यदि मैं उकसाई गयी भरत से होऊं ,
तो पति समान स्वयं पुत्र भी खोऊँ |
ठहरो , मत रोको मुझे,कहूं सो सुन लो ,
पाओ यदि उसमे सार उसे सब चुन लो,
करके पहाड़ सा पाप मौन रह जाऊं ?
राई भर भी अनुताप न करने पाऊँ ?
थी सनक्षत्र शशि-निशा ओस टपकाती ,
रोती थी नीरव सभा ह्रदय थपकाती |
उल्का सी रानी दिशा दीप्त करती थी ,
सबमें भय,विस्मय और खेद भरती थी |
'क्या कर सकती थी मरी मंथरा दासी ,
मेरा ही मन रह सका न निज विश्वासी |
जल पंजर-गत अरे अधीर , अभागे ,
वे ज्वलित भाव थे स्वयं तुझी में जागे |
पर था केवल क्या ज्वलित भाव ही मन में ?
क्या शेष बचा था कुछ न और इस जन में ?
कुछ मूल्य नहीं वात्सल्य मात्र , क्या तेरा ?
पर आज अन्य सा हुआ वत्स भी मेरा |
थूके , मुझ पर त्रैलोक्य भले ही थूके ,
जो कोई जो कह सके , कहे, क्यों चुके ?
छीने न मातृपद किन्तु भरत का मुझसे ,
हे राम , दुहाई करूँ और क्या तुझसे ?
कहते आते थे यही अभी नरदेही ,
'माता न कुमाता , पुत्र कुपुत्र भले ही |'
अब कहे सभी यह हाय ! विरुद्ध विधाता ,---
'है पुत्र पुत्र ही , रहे कुमाता माता |'
बस मैंने इसका बाह्य-मात्र ही देखा ,
दृढ ह्रदय न देखा , मृदुल गात्र ही देखा |
परमार्थ न देखा , पूर्ण स्वार्थ ही साधा ,
इस कारण ही तो हाय आज यह बाधा !
युग युग तक चलती रहे कठोर कहानी ---
'रघुकुल में भी थी एक अभागिन रानी |'
निज जन्म जन्म में सुने जीव यह मेरा ---
'धिक्कार ! उसे था महा स्वार्थ ने घेरा |'---''
"सौ बार धन्य वह एक लाल की माई |''
जिस जननी ने है जना भरत सा भाई |"
पागल-सी प्रभु के साथ सभा चिल्लाई ---
"सौ बार धन्य वह एक लाल की माई |''

रचयिता - मैथिली शरण गुप्त
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