सुबह करीब है, तारों का हाल क्या होगा
सहर करीब है, तारों का हाल क्या होगा
अब इंतज़ार के मारो का हाल क्या होगा
तेरी निगह ने प्यारे कभी ये सोचा है
तेरी निगाह ने ज़ालिम कभी यह सोचा है
तेरी निगाह के मारों का हाल क्या होगा
जब से उन आँखों से ऑंखें मिली
हो गयी है तभी से ये बावरी ऑंखें
नहीं धीर धरे अति व्याकुल है
उठजाती है ये कुल कावेरी ऑंखें
कुछ जादू भरी कुछ भाव भरी,
उस सांवरे की है सांवरी ऑंखें
फिर से वह रूप दिखादे कोई
हो रही है बड़ी उतावली ऑंखें तेरी
ए मेरे पर्दा नाशी अब तो यह हटा पर्दा
तेरे दर्शन के दीवानो का हाल क्या होगा
मुकाबिला है तेरे हुस्न का बहारों से
न जाने आज बहारों का हाल क्या होगा
नकाब उनका उलटना तो चाहता हूँ मगर
बिगड़ गए तो नज़ारों का हाल क्या होगा
मूल रचना : सेहब अख्तर