यहाँ दुख में ब्रम्ह भी रोते है

हे रघुराई तुम से विनती करूं मैं दुख में पड़ा हूं दुख से उबारो  हो

माया नाच नचाए रे इससे कौन बचाए रे धरा धाम पर दुख आए तो कभी नहीं घबराना रे दुख में ही सुख ढूंढ निकालो हंसकर गले लगाना रे
खुद मर्जी कोई काम ना होते हैं
यह दुख में ब्रह्म भी रोते हैं

विधना के आगे ये कैसी लाचारी है, बन बन घूम रही सिया सुकुमारी है
धन कोई काम ना आया रे
फुस की कुटिया बनाया रे कल जो बनते अवधपति वो इस कुटिया में सोते हैं देखके ऐसे दसा प्रभु के कोल भील भी रोते हैं
बिध गति में जो लिखा वही होते हैं
यह दुख में ब्रह्म

सुख दुख तो ज्ञानी जीव हंस हंस के ढोया  है सबको जो सुख बांटे वो काहे रोया है
जो नियम वही बनाया है पहले उसने ही निभाया है नर के रूप नारायण है वो ज्ञान की बात बताता हैं होना था जो वही हुआ इसे कोई रोकना पाता है
बोझ उठाकर खुद ही सब ढोते  हैं
यहां दुख में ब्रह्म

पहले जो बीज बोया अब फल आया है ,
फल आने में थोड़ा देर लगाया है।
सब के पीछे कोई कारण है
कार्य पहले से निर्धारण है
अगर वृक्ष है कहीं ऊगा तो बीज कही से आता है।
वृक्ष है कोई उगाने वाला ऐसे नहीं हो जाता है कारण सबको पता नहीं होते हैं
यहां दुख में ब्रह्म भी होते हैं
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