राम राम रटु, राम राम रटु, राम राम जपु जीहा।
राम-नाम-नवनेह-मेहको, मन! हठि होहि पपीहा॥१॥
सब साधन-फल कूप सरित सर, सागर-सलिल निरासा।
राम-नाम-रति-स्वाति सुधा सुभ-सीकर प्रेम-पियासा॥२॥
गरजि तरजि पाषान बरषि, पबि प्रीति परखि जिय जानै।
अधिक-अधिक अनुराग उमँग उर, पर परमिति पहिचानै॥३॥
रामनाम-गत, रामनाम-मति, रामनाम अनुरागी।
ह्वै गये हैं जे होहिगे, त्रिभुवन, तेइ गनियत बड़भागी॥४॥
एक अंग मम अगम गवन कर, बिलमु न छिन-छिन छाहै।
तुलसी हित अपनो अपनी द्सि निरुपधि, नेम निबाहैं॥५॥