मैं तो लुटि गई बीच बजार सखी।

मैं  तो   लुटि  गई  बीच  बजार  सखी।
मैं  तो  खरी  रही यमुना के पार सखी।
मैं  तो लखि रही यमुना की धार सखी।
आयो    कतहूँ   ते   नंदकुमार   सखी।
वाने  मोते  कही  सुनु  ब्रज नार सखी।
तू तो जाने तेरी सास खाय खार सखी।
मोते  कही  काहे  कीनी  अबार  सखी।
जा   लिवा  ला  मारूँ बेलन मार सखी।
भोरी  मैं  भी  चली सँग रिझवार सखी।
मग    वाने    गल  बहिँयन  डार  सखी।
वाके  परस  ने  दिया जादू  डार  सखी।
मैंने   देखा  वाय   घुँघटा  उघार  सखी।
फिर   क्या   था   है गये दृग चार सखी।
वाने   किये     सैनन   सों   वार   सखी।
मैं   तो   गइ  तन  मन  सब  हार  सखी।
पुनि  उर  ते    लगाया  रिझवार   सखी।
पुनि  मोते  कही  तू भी कर प्यार सखी।
मैं   तो  तनु  सुधि सकी न संभार सखी।
गिरी    मुर्छित    धरणि  मझार    सखी।
इतने  में   आईं  मेरी  सखी  चार सखी।
उनने    ही  उठाया  किया  प्यार  सखी।
वो तो झूठा तजि भजि गया जार सखी।
मैंने सखी को  बताया प्यार जार सखी।
कही सखी ने  मैं जानूँ वाय जार सखी।
वो  तो  सब   को ही ठगे ठगहार सखी।
वो  तो    लबरन   को    सरदार   सखी।
वो  तो   सब  ते ही  करे दृग चार सखी।
वो  तो  ब्रज को बड़ों ही बटमार सखी।
वो   तो    कपट   रूप   साकार  सखी।
वाते  विधि   हरि  हर  गये  हार  सखी।
वाको  लखि  उमा रमा बलिहार सखी।
जो भी देखे वाय  नैन  सैन  मार सखी।
निज    पतिव्रत    धर्म   विचार   सखी।
मानु  मेरी  वाय  मन  से  निकार सखी।
अभी  तो  है दूर दूर का ही प्यार सखी।
अब    लखु  न  कबहुँ  रिझवार  सखी।
मग   चलु    निज   घूँघट   डार   सखी।
काननहूँ     में      रूई     डार     सखी।
वाकी    मुरलिहुँ    जादू    डार    सखी।
सँग   लै   चलु   सखि  दुइ  चार  सखी।
मोय    अब   तो   है  गयो  प्यार  सखी।
छुटे   नहिं   करु   यतन   हजार  सखी।
बसि  गयो   रोम   रोम  रिझवार  सखी।
तू तो छुपि के 'कृपालु' करु प्यार सखी॥

पुस्तक : ब्रजरस माधुरी-2
कीर्तन संख्या : 116
पृष्ठ संख्या : 290
सर्वाधिकार सुरक्षित © जगद्गुरु कृपालु परिषत्

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