प्रभु मैं पूछ रहा एक बात ।
बैठा है तू सबके अन्दर, फिर क्यों पाप होइ जात ।। प्रभु मैं....
गजब तमाशा नित्य करे तू , दिन करता फिर रात ।
एक ही साँचे में सब ढलते, फिर क्यों भेद दिखात ।। प्रभु मैं....
जहाँ पाप तहाँ पुण्य बसा है, जहाँ पुण्य तहाँ पाप ।
दीपक ऊपर करे रोशनी, नीचे अन्ध समात ।। प्रभु मैं....
फूल बनाया शूल बनाया, विस्तृत सागर शान्त ।
संचालक नाटक का नटवर, फिर विचलित क्यों कान्त ।। प्रभु मैं....
पद रचना : प• पू• श्री श्रीकान्त दास जी महाराज
स्वर : प्रवीण सिंह जी