धरो मन, भानुलली को ध्यान।
जाको ध्यान धरत निशिवासर,
सुंदर श्याम सुजान।
कनक मुकुट सिर चारु चंद्रिका,
तापर लर मुक्तान।
चूनरि जरिन किनार गौर तनु,
नीलांबर परिधान।
श्रुति ताटंक गुंथी वर वेणी,
लजवति भौंह कमान।
नासा भल मुक्ताहल सोहति,
मन मोहति मुसकान।
पग पायल गति अति अभिरामिनि,
लखि मराल सकुचान ।
पाय 'कृपालु' सरस अस स्वामिनि,
चरन न कस लपटान॥
भावार्थ- अरे मन! तू निरंतर ही वृषभानुनंदिनी राधिकाजी का ध्यान किया कर। जिनका ध्यान साक्षात् ब्रह्म श्री श्यामसुन्दर भी निरंतर करते रहते हैं। जिनके सिर पर स्वर्ण का मुकुट और मनोहर चंद्रिका तथा उसके ऊपर भी मोतियों की लड़ शोभा दे रही है। जिनकी जरी-किनारे की चुनरी तथा नीले रंग का वस्त्र है और जो स्वयं गौर वर्ण की हैं। जिनके कान में झुमके झुल रहे हैं और अत्यन्त ही सुन्दर रीति से वेणी गुथी हुई है और जिनके भौंहें धनुष को लज्जित कर रही हैं। जिनकी नासिका में सुन्दर मुक्ताहल शोभित हो रहा है और जो मुस्कराती हुई हठात् मन को मोहित कर लेती हैं। जिनके पैरों में पायल हैं तथा जिनकी चाल हंसों को भी लज्जित करने वाली अत्यन्त मतवाली है। 'श्री कृपालु जी महाराज' कहते हैं कि ऐसी परम मधुर स्वामिनी को पाकर भी, अरे मन! तू उनके चरणों में सदा के लिए क्यों नहीं लिपट गया?
पुस्तक : प्रेम रस मदिरा (श्री राधा माधुरी)
पृष्ठ संख्या : 397
पद संख्या : 21
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