तरज़-तेरी गलियों का हुं आश़िक
तात मिलै पुनि मात मिलै,सुत भ्रात मिलै युवती सुखदाई।
राज मिलै गज बाजि मिलै,सब साज मिलै मन वांछित पाई।।
यह लोक मिलै सुर लोक मिलै,बिधि लोक मिलै बैकूण्ठहु जाई।
सुन्दंर और मिलै सब ही सुख,सन्त समागम दुर्लभ भाई।।
बृज़ भुमि में ही सदा,मेरा मन डोले
बृज़ की लता पता में ही,क्यों ना मस्त होले
बृज़ भुमि....
काया शुद्ध होत जब,बृज़ रज उड़ि अंग लगे।
माया शुद्ध होत कृष्ण,नाम पे लुटाये ते।।
शुद्ध होत कांन कथा,कीर्तंन के श्रवण किये।
नैंन शुद्ध होत श्री,युगल छवि पाये ते।।
हाथ शुद्ध होत श्री,ठाकुर की सेवा किये।
पांव शुद्ध होत श्री,वृन्दावन जाये ते।।
मस्तक शुद्ध होत श्री,राधा रमण चरण पड़े।
रसना शुद्ध होत श्यामा,श्याम गुण गाये ते।।
बृज़ भुमि में ही सदा,मेरा मन डोले
बृज़ की लता पता में ही,क्यों ना मस्त होले
बृज़ भुमि....
रे मन श्री वृन्दावन चल।
यमुना सरस सुखद अति सोहे,नहीं बहै कल-कल।।
जहां विराजत राधा रानी,लिये सहचरी दल।
हित गोपाल को प्राण-प्रिया के,चरण कमल को बल।।
बृज़ भुमि में ही सदा,मेरा मन डोले
बृज़ की लता पता में ही,क्यों ना मस्त होले
बृज़ भुमि....
भक्तो के विहार हेतू,भारत-वसुंधरा पे,
साक्षात गोविन्द ने,गोकुल को उतारा है।
सुषमा-सर-सरोज पारावार महिमा का,रस
का समुद्र है आनंद व्योम तारा है।।
साधकों का भाव और ह्रदय सह्रदयो का,
रसिकों के सरस,जीवन का सहारा है।
पावन तपोवन है सच्चे प्रेम रोगियों
का,वृन्दावन श्री जी का निकेतन रम्य प्यारा है।।
बृज़ भुमि में ही सदा,मेरा मन डोले
बृज़ की लता पता में ही,क्यों ना मस्त होले
बृज़ भुमि....
चम्पक वरन भुमि,झूमि द्रुम फूले फले।
सांचे मणि जटे तहं,सखिन की भीर है।।
नेह की कटाक्षन सौं,सुभग महल बने।
जेतिक फुहारें नैंन,तारे परवीन है।।
जाकौ सब ध्यान धरैं,लोचन अरन अरै।
यहै राज राजै नित,चाह मेरे हीए रहै।।
श्री हरिवंशी-हरिदासी-व्यासी,ये खवासी करैं।
प्यारी पातशाह तहं,लालन उजीर है।।
बृज़ भुमि में ही सदा,मेरा मन डोले
बृज़ भुमि....
श्री वृन्दावन वासी हैं हम,श्री वृन्दावन वासी हैं हम।
देवी देव पितर नहीं जानें,संतन चरन उपासी हैं हम।।
सेव्य हमारे किशोर वल्लभ,श्री राधे जू की दासी हैं हम।
कृष्णअली की सरन पाइकैं,प्रेम सखी सुख रासी हैं हम।।
बृज़ भुमि में ही सदा,मेरा मन डोले
बृज़ की लता पता में ही,क्यों ना मस्त होले
बृज़ भुमि....
धन-धन वृन्दावन की कोयल कारी।
जिन बागन में रहै सदा,बोलत है मतवाली।।
बोलत आवै सबद सुनावै,बैठे आम की डारी।
अभयराम येहू बड़भागिन,श्यामा श्याम की प्यारी।।
बृज़ भुमि में ही सदा,मेरा मन डोले
बृज़ की लता पता में ही,क्यों ना मस्त होले
बृज़ भुमि....
अनन्य नृपति श्री स्वामी हरिदास।
कुंजबिहारी सेवे बिन जिनि,छिंन न करी काहूकी आस।।
सेवा सावधान अति जानि,सुघर गावत दिन रस रास।
ऐसौ रसिक भयौ नहिं ह्वै है,भुवमंडल आकास।।
देह विदेह भए जीवत ही,विसरे बिस्व बिलास।
वृंदावन रेनु तन मन भजि,तजि लोक वेद की त्रास।
प्रिती रिति कीनी सबहिन सौं,किये न खास खवास।
अपनौ व्रत यह ओर निभायो,जौलौं कंठउसास।।
सुरपति भुवपति कंचन कामिनी,जिन भायैं घास।
अबके साधु व्यास हमहूं से, जगत करत उपहास।।
बृज़ भुमि में ही सदा,मेरा मन डोले
बृज़ की लता पता में ही,क्यों ना मस्त होले
बृज़ भुमि....
बृज़ धाम रसिक धाम,रस बरसे नित नविन।
धसका बृज़ रज़ को,अंग पे लगाये ले।।
श्यामा श्याम रसका चसका लगायो है।
रज़ को लपेट अंग, जीवन सवांर ले।।
बृज़ भुमि में ही सदा,मेरा मन डोले
बृज़ की लता पता में ही,क्यों ना मस्त होले
बृज़ भुमि....
बाबा धसका पागल पानीपत