भवानी तुम्हारी शरण आ गया हूँ
बिना भक्ति के हो गए करम काले,
लगाने तुम्ही से लगन आ गया हूँ ।
भवानी तुम्हारी शरण आ गया हूँ...
जभी जनम पाया, तभी भव में डूबा,
मैं करने को भव से तरन आ गया हूँ ।
भवानी तुम्हारी शरण आ गया हूँ...
कई जनम पाए कई योनियों में,
ख़त्म करने आवागमन आ गया हूँ ।
भवानी तुम्हारी शरण आ गया हूँ...
तेरे जल हैं करते ह्रदय तम को निर्मल,
मैं करने मधुर आचमन आ गया हूँ ।
भवानी तुम्हारी शरण आ गया हूँ...
चरण चूमते ऊँचे पर्वत तुम्हारे,
मैं चढ़ के चढ़ाई कठिन आ गया हूँ ।
भवानी तुम्हारी शरण आ गया हूँ...
कवि: ब्रह्मलीन स्वामी श्री अखिलेश जी
स्वर: जसवंत सिंह जी