किष्किंधा कांड :२

(किष्किंधा कांड: द्वितीय भाग)

मैं जान गया हूं तुमको,
हो तुम परमधाम के ईश,
बाली नत मस्तक हो बोला,
चरणों में झुका कर शीश,
मुझ पातक को देकर दर्शन,
जैसे किया मुझपे उपकार,
यह पुत्र अंगद है मेरा,
प्रभु निज सेवा में ,
कीजिए इसे भी स्वीकार,
बैकुंठ धाम को हो गत मेरी,
जाऊँ छोड़ नश्वर यह शरीर,
कौन हैं आप आए कहां से,
क्यों फिरते हो वन वन वीर......

व्याकुल भई नगरी सारी,
तारा करने लगी विलाप,
छोड़ गए नाथ मेरे मुझको,
कैसे सहूंगी मैं संताप,
कितना समझाया था,
ना अनुज से अपने बैर करो,
शरण में है वो श्री राम के,
अपनी तनिक तो तुम खैर करो,
पर तुमने स्वामी एक ना मानी,
मिथ बल में बने मूढ़ रहे,
तुम्हारी तारा व्यथा अब कैसे सहे,
करने लगी विलाप रानी,
तब हो कर बड़ी अधीर,
कौन हैं आप आए कहां से,
क्यों फिरते हो वन वन वीर.....

व्याकुल देख तारा को,
रघुनंदन ने मर्म सारा भान लिया,
मोह जनित जो माया थी,
तजने का उसे ज्ञान दिया,
तुम्हारे समक्ष जो पड़ी है,
निस्तेज नश्वर यह काया है,
पृथ्वी जल अग्नि आकाश वायु,
पंच तत्वों की यह माया है,
किस लिए होती हो व्याकुल,
बहाती हो नैनों से क्यों नीर,
कौन हैं आप आए कहां से,
क्यों फिरते हो वन वन वीर।

©राजीव त्यागी नजफगढ़ नई दिल्ली      
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