पंछी की तरह घूमता ही रहा है तू,
कभी धरती पर कभी अंबर में उड़ता ही रहा है तू,
पंछी की तरह......
जीवन का सफर कितना बेखबर,
एक पल की भी ना है जिसकी खबर,
ऐसे बेखबर जीवन को ढूंढता ही रहा है तू,
पंछी की तरह......
काया की कुटी में रहता है तू,
मोह माया में फिर क्यों बहता है तू,
कभी इस देह में कभी उस देह में रमता ही रहा है तू,
पंछी की तरह......
प्रभु की शरण में ध्यान लगा,
वासनाओं को तू श्मशान भगा,
कभी विषियो में कभी तृष्णा में फंसता ही रहा है तू,
पंछी की तरह......
डॉ सजन सोलंकी