सुन लाख टका की बात रे।

सुन लाख टका की बात रे।
जो तोहिँ मानत रहत आपुनो, सुत दारा पितु भ्रात रे।
सो सब धोखा जान मूढ़ मन, है सब स्वारथ नात रे।
जब ये जानत नहिं आपन हित, भटकट जग दिन रात रे।
तब ये कहा करैं हित तेरो, तू इन कत पतियात रे।
अब ‘कृपालु’ तू तोरि नात सब, जोर नात बलभ्रात रे॥

भावार्थ :- अरे मन ! लाख टका की बात सुन । जो पुत्र, पिता, भाई आदि तुझे अपना मानते रहते हैं, यह सब धोखा है । क्योंकि वे लोग अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए ही ऐसा करते हैं । अरे मन ! जब ये लोग अपना ही वास्तविक हित नहीं समझते और सांसरिक विषयों में भटकते रहते हैं तब भला ये तेरा क्या हित करेंगे । तू इन पर क्या विश्वास करता है । ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि अरे मन ! अब तू सबसे नाता तोड़कर एकमात्र श्यामसुन्दर से नाता जोड़ ले।

पुस्तक : प्रेम रस मदिरा, सिद्धांत माधुरी
पद संख्या : 114
पृष्ठ संख्या : 56
सर्वाधिकार सुरक्षित © जगद्गुरु कृपालु परिषत्

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