मैया! मैं तो मोहिनि-रूप बनैहौं।
घघरा चुन्नटदार पहिरिहौं, चुनरी शीश धरैहौं।
बेंदी भाल लाल लगवैहौं, सेंदुर माँग भरैहौं।
वेणी गूँथि पहिरि नथ बेसर, सुरमा सुघर लगैहौं।
गर दुलरी, लर हार मोतियन, उर कंचुकी कसैहौं।
कर करपत्र चुरी कंकण-मणि, मेहँदी लाल रचैहौं।
घूँघट को पट घनो काढ़िहौं, लाजन लाज लजैहौं।
नाँव साँवरी सखी धेरैहौं, गति हंसहुँ सकुचैहौं।
कालि छली चंद्रावलि अलि मोहिं, आजु छलन हौं जैहौं।
छलि 'कृपालु' इमि चन्द्रावलि कहँ, हौं तेहि मजा चखैहौं॥
भावार्थ - श्यामसुन्दर अपनी मैया से कहते हैं कि मैं तो मोहिनी रूप बनाऊँगा। चुन्नटदार लहँगा पहिनकर सिर पर चुनरी ओढूँगा। भाल में लाल बिन्दी लगवाऊँगा एवं माँग में सिन्दूर भराऊँगा। बालों की वेणी गूँथ कर नाक में नथ एवं बेसर पहनूँगा। आँखों में सुरमा लगा लूँगा। गले में दुलरी एवं मोतियों के हार पहन कर वक्ष स्थल में चोली धारण करूँगा। हाथ में करपत्र, चूड़ी एवं मणिमय कंकण पहन कर लाल मेहँदी रचाऊँगा। खूब लम्बा घूँघट काढ़ कर लज्जा का ऐसा अभिनय करूँगा कि साक्षात् लज्जा भी लज्जित हो जायगी। अपना नाम साँवरी सखि रखकर चाल से राजहंस को भी
लज्जित करूँगा। कल मुझे चन्द्रावलि सखि ने छला है, आज मैं भी उसे छलूँगा। 'कृपालु' के शब्दों में श्यामसुन्दर कहते हैं कि इस प्रकार चन्द्रावलि को छल कर उसे मुझे छलने का भली भाँति मजा चखाऊँगा।
पुस्तक : प्रेम रस मदिरा, श्री कृष्ण-बाल लीला-माधुरी
पृष्ठ संख्या-307
पद संख्या-89