रटो रे मन छिन छिन राधे नाम

रटो रे मन! छिन छिन राधे नाम ।
ब्रह्मादिक की कौन बात जेहि, रटत ब्रह्म घनश्याम ।
जेहि रटि महारास-रस पायो, शंकर धरि तनु बाम।
निगम-अगम निधि रसिकन दीनी, बिनुहिं मोल बिनु दाम।
राधे नाम पुकारत आरत, भाजति तजि निज धाम।
मिल्यो ‘कृपालुहिं' रतन अमोलक, कहा जगत सों काम ।।

भावार्थ - हे मन! क्षण-क्षण निरन्तर प्रेमपूर्वक राधे नाम का संकीर्तन कर। जिस राधे नाम को ब्रह्मा, विष्णु आदि की कौन कहे स्वयं साक्षात् ब्रह्म- श्रीकृष्ण भी रटा करते हैं जिस राधे नाम को रटकर भगवान् शंकर ने गोपी शरीर धारण करके द्वापर में महारास का रस प्राप्त किया। वेदों में भी अप्राप्य इस राधे नाम की निधि को महापुरुषों ने अकारण कृपा से बिना प्रयास के ही प्रदान कर दिया। भक्त के आर्त-भावयुक्त राधे नाम पुकारते ही किशोरी जी अपना लोक छोड़कर अत्यन्त व्याकुल होकर भागती हुई उसके पास चली आती हैं। ‘श्री कृपालु जी' कहते हैं कि यह राधे नाम रूपी अमूल्य रत्न मुझे तो रसिकों की कृपा से मिल गया है, फिर संसार से क्या काम?


रचयिता : जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
पुस्तक : प्रेम रस मदिरा (मिद्धान्त माधुरी)
पृष्ठ संख्या : 45
पद संख्या : 87
सर्वाधिकार सुरक्षित © जगद्गुरु कृपालु परिषत्

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