निर्बल निर्धन बिप्र सो दीन,
बसत निज कुटिया ब्राह्मिन ग्रामा,
विषय विरक्त ज्ञानी पर ब्रह्म,
दीक्षा अरु भिक्षा दैनिक कामा
हरि पद पंकज अबिरल भक्ति,
सदैव जपत हरि पावन नामा,
सचराचर करत भगवद् दरसन,
शांत चित्त कृष्ण सखा् सुदामा
पति परायणा सुशील तेहिं घरनी,
बिनवति इक दिन नाथ सुदामा,
कृष्ण सखा संग शिक्षा लीन्हो,
अवंतिपुर संदीपनी गुरुग्रामा
द्वारिका जाये नाथ दारिद्य हरिहैं,
द्वारिकाधीश लोचन अभिरामा,
लायि उधार पाव सेर चाउर,
गणपति सुमिरि भेजत हरि धामा
पहुँचि आये द्विज पुरी द्वारिका,
मांगत खात सुमिरत हरि नामा,
स्वर्ण सुसज्जित देखि भवन सब,
चौंधियात अरु चकित सुदामा
खाय तरस परदेशी दशा सब,
पुरबासी सादर करत प्रनामा,
होय अधीर द्विज द्वारपालन तें,
पूँछत दया सिंधु को धामा
द्वारपाल हरि बरनत परिचय,
द्विज आयो बिनु पनहीं जामा,
दीनबंधु मिलन को करत निवेदन,
गुरुबन्धु बतावत सखा सुदामा
द्वारपाल मुख सखा नाम सुनि,
बेसुध धायो प्रभु घनश्यामा,
क्रंदन करत रटत हरि पुनि पुनि,
मेरो मित्र सुदामा मित्र सुदामा
अंखियन नीर रुकत नहीं रोके,
लपटाय लियो हरि अंक सुदामा,
लोचन नीर होत अब बतियाँ,
अमर करत दोऊ मित्रता को नामा
सादर लाय सखा अंतःपुर,
धोवत अंसुवन पद घनश्यामा,
चन्दन केशर दिब्यगंध अरु,
लेपत हरि तनु सखा सुदामा
नानाबिधि हरि सेवत पूजत,
जैसो आपनु भद्र बलरामा,
जमवंती जी चँवर डोलावत,
आरती करत देवी सतभामा
हरि मांगत भेंट मोहें जो दीन्हो,
मेरो भाभी सखा तोरी बामा,
सकुचात कांख छुपावत पोटली,
कहि न सकत कछु सखा सुदामा
भक्तन प्रेम छुपत न छुपाये,
भाव के भूखे प्रभु घनश्यामा,
हाथ लियो हरि चाउर सखा ते,
फाँकत मुख लोचन अभिरामा
छप्पन भोग लग्यो हैं फीके,
ऐसो खात आज घनश्यामा,
जैसो सुधारस भीने हों चाउर,
कभी पायो नहीं लोचनअभिरामा
कछु दिन बाद फिरत गृह वापिस,
मांग बिदा हरि सखा सुदामा,
सोचत हरि कछु हाँथ न दीन्हो,
नाहिं भयो मोरो पुरन कामा
पहुँचत गृह बिप्र भयो अचंम्भित,
नहिं कहुँ कुटिया नहिं कहुँ ग्रामा,
स्वर्ण सुसज्जित भवन महल सब,
नहिं कहुँ ठहरत इंद्र को धामा
सजि धजि पति ब्रह्मणी पूजत,
भक्त शिरोमणि बिप्र सुदामा,
लीलाधर की लीला अद्भुत,
रंक से महीपति भयो सुदामा
रचना आभार: ज्योति नारायण पाठक
वाराणसी