इंसान जान कर भी इतना समझ ना पाया,
जाना पड़ेगा इक दिन
जाना पड़ेगा इक दिन ये है मकान पराया,
इतना समझ ना पाया
इंसान जानकर भी इतना समझ ना पाया.....
रहने को चंद घड़ियां, मोहलत है हर किसी को,
मेहमान बन के काटे, इंसान ज़िन्दगी को,
रोता गया वो जिसने,
रोता गया वो जिसने, दुनिया से दिल लगाया,
इतना समझ ना पाया....
इंसान जानकर भी इतना समझ ना पाया......
ये चार दिन का मेला, आख़िर लगा ही क्यों है,
वापिस बुलाने वाले, तूं भेजता ही क्यों है,
मालिक ये भेद क्या है,
मालिक ये भेद क्या है, कुछ भी समझ ना आया,
इतना समझ ना पाया...
इंसान जानकर भी इतना समझ ना पाया.....
जी भर के इस चमन की, रौनक बहार देखी
दुनिया भली लगी थी, बस बार बार देखी,
जब आँख बन्द कर ली,
जब आँख बन्द कर ली, कुछ भी नज़र ना आया,
इतना समझ ना पाया.....
इंसान जानकर भी इतना समझ ना पाया.....