मैं ही शिव हूँ

शूलपाड़ि शम्भु शशिशेखर, पूषदन्तभित् दक्षाध्वरहर,
अहिर्बुध्न्य स्थाणु दिगम्बर, पाशविमोचन हर शिव शंकर,
वीरभद्र गिरिधन्वा ईश्वर, अष्टमूर्ति पशुपति विश्वेश्वर,
सोम भर्ग सर्वज्ञ गिरिश्वर, पाशविमोचन हर शिव शंकर…..

मैं ही पर्वत, मैं ही सागर; मैं ही अमृत और हलाहल,
मैं ही विषधर खुद को मथता, हर मंथन में मैं ही मैं हूँ,
मैं ही शिव हूँ, मैं ही शिव हूँ, मैं ही शिव हूँ, मैं ही शिव हूँ…..

मैं ही सर्प, सूर्य और तरुवर, मैं ही भूमि, तपन और भूचर,
मैं भुजंग व्याकुल जो लिपटा, उस चन्दन में मैं ही मैं हूँ,
मैं ही व्योम, पिंड, और काया, मैं ही लोभ, मोह और माया,
बन बैरागी जिसको त्यागा, उस कंचन में मैं ही मैं हूँ…..

मैं ही हूँ उत्पत्ति जगत की, मैं ही हूँ आरम्भ स्वयं का,
हर रचना मेरी ही कृति है, संरचना में मैं ही मैं हूँ,
मैं ही बूँद, घूँट, और गागर, मैं ही झील, नदी, और सागर,
मैं ही बह कर निज में मिलता, हर संगम में मैं ही मैं हूँ,
मैं ही शिव हूँ, मैं ही शिव हूँ, मैं ही शिव हूँ, मैं ही शिव हूँ…..
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