राधे राधे श्री हरिवंश

प्रीति न काहु की कानि बिचारै ।
मारग अपमारग विथकित मन को अनुसरत निवारै ।। [1]

ज्यौं सरिता साँवन जल उमगत सनमुख सिंधु सिधारै ।
ज्यौं नादहि मन दियें कुरंगनि प्रगट पारधी मारै ।। [2]

(जै श्री) हित हरिवंश हिलग सारँग ज्यौं सलभ सरीरहि जारै ।
नाइक निपून नवल मोहन बिनु कौन अपनपौ हारै ।। [3]
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