बताओ सखि !, कैसे धरूँ मैं धीर

बताओ सखि !, कैसे धरूँ मैं धीर।
जो रातें पल सम मधु बातें, करत बीत गइँ वीर ।
वे अब पल पल कटत न मानो, द्रुपद सुता की चीर।
जिन अँखियन जल नेकहुँ आवत, पिय रह होत अधीर।
तिन अँखियन सों सदा एकरस, बहत रहत अब नीर।
जिनते होत पलकहूँ न्यारे, उठत रही उर पीर ।
सुनति कृपालु कहानी उनकी, थे कोउ श्याम शरीर।।

भावार्थ- ( एक विरहिणी प्रियतम श्यामसुन्दर के वियोग में अपनी अन्तरंग सखी से कहती है । ) अरी सखि ! तू ही बता कि मैं धैर्य किस प्रकार से धरूँ । अरी सखी ! प्रियतम श्यामसुन्दर के साथ मधुर मधुर बातें करते हुए जो रातें उस समय एक क्षण के समान व्यतीत हो जाया करती थीं , उन्हीं रात्रियों का आज एक - एक पल भी काटे नहीं कटता । वह रात द्रौपदी के चीर के समान बढ़ती ही जाती है । मेरी जिन आँखों में थोड़ा सा भी आँसू देखकर प्रियतम व्याकुल हो जाया करते थे , उन्हीं आँखों से अब निरन्तर एक - तार आँसू बहते रहते हैं । जिन श्यामसुन्दर से एक क्षण के लिए भी पृथक होने पर मेरे हृदय में असह्य पीड़ा हुआ करती थी , कृपालु कहते हैं कि आज उन्हीं श्यामसुन्दर की कहानी मात्र सुना करती हूँ कि ब्रज में कभी कोई श्यामसुन्दर थे।

पुस्तक : प्रेम रस मदिरा, विरह माधुरी
पृष्ठ संख्या : 407
कीर्तन /पद संख्या : 123
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