भज ले प्राणी रे अज्ञानी दो दिन की जिंदगानी,
रे कहाँ तू भटक रहा है यहाँ क्यों भटक रहा है,
झूठी काया झूठी माया चक्कर में क्यों आया
जगत में भटक रहा है
नर तन मिला है तुझे खो क्यों रहा है प्यारे खेल में,
कंचन सी काया तेरी उलझी है विषयों के बेल में,
सुख और दारा वैभव सारा कुछ भी नहीं तुम्हारा
व्यर्थ सिर पटक रहा है.......
चंचल गुमानी मन अब तो जनम को सँवार ले
फिर न मिले तुझे अवसर ऐसा बारंबार रे
रे अज्ञानी तज नादानी भज ले सारंग पाणी
व्यर्थ सर पटक रहा है.....