बर्मा के विप्लव से सहसा शासन का आसन डोल उठा..
उस बूढ़े शाह बहादुर का बूढ़ा मजार तब बोल उठा..
अब बढ़ो-बढ़ो ,हे मेरे सुभाष !
तुम हो मजबूर नहीं साथी..
अब देख रहा है लाल-किला ..
दिल्ली है दूर नहीं साथी !
बोले नेताजी ,तुम्हे कभी हे शाह नहीं भूलेंगे हम..
चारों बेटों का खून और वह आह नहीं भूलेंगे हम..
तुम और तुम्हारी कुर्बानी,युग-युग तक होगी याद हमें..
कोई भी मूल्य चूका करके बस होना है आजाद हमें !
प्रण करता हूँ मैं ,तेरा मजार मैं,आजाद हिन्द लेकर जाऊं..
अन्यथा हिन्द के बहार ही मैं..
घुट-घुट करके मर जाऊं !
घुट-घुट करके मर जाऊं !
स्वर : माधुरी मिश्रा
रचनाकार : अज्ञात