रचा है सृष्टि को जिस प्रभु ने,
वही यह सृष्टि चला रहे हैं,
जो पेड़ हमने लगाए पहले,
उसी का फल अब हम पा रहे हैं,
रचा है सृष्टि को जिस प्रभु ने....
इसी धारा से शरीर पाए,
इसी धारा में फिर सब समाये,
एक आ रहे हैं एक जा रहे हैं,
रचा है सृष्टि को जिस प्रभु ने....
जिन्होंने भेजा जगत में जाना,
तय कर दिया लौट कर के फिर से आना,
जो भेजने वाले हैं जहां में,
वही फिर वापस बुला रहे,
रचा है सृष्टि को जिस प्रभु ने....
बैठे हैं जो धान की बादियों में,
हैं डाल हर पत्ते में,
फूल रंग-बिरंगे खिला रहे हैं,
रचा है सृष्टि को जिस प्रभु ने....