ढूंढे क्यों मुझे मंदिर जाकर

ढूंढे क्यों मुझे मंदिर मंदिर जाकर ,
बोले ये भगवान,
कण कण में हूं मैं समाया रे मानव,
जान सके तो जान,
कण कण में हूं मैं समाया रे मानव,
जान सके तो जान....

मेरी खातिर बनवा डाले तूने,
मंदिर अच्छे अच्छे,
पर देखे नहीं कभी तूने,
भूख से बिलखते बच्चे,
उनके अंदर ही रहता मैं हूं,
तू इतना सका ना जान,
ढूंढे क्यों मुझे मंदिर मंदिर जाकर,
बोले ये भगवान,
कण कण में हूं मैं समाया रे मानव,
जान सके तो जान......

पत्थर की इक मूर्त रचकर तू,
श्रद्धा से शीश झुकाए,
पर दरिद्र रूप में जो है मेरी रचना,
उसको ही तू दुत्काए,
दिया कभी किसी को तूने,
तो किया बड़ा अभिमान,
दरिद्र नारायण रूप को मेरे मानव,
तू ना सका पहचान,
ढूंढे क्यों मुझे मंदिर मंदिर जाकर,
बोले ये भगवान,
कण कण में हूं मैं समाया रे मानव,
जान सके तो जान.....

राजीव तेरे अंदर भी तो मैं ही समाया,
बनकर बैठा प्राण,
पर चित्त को लगाकर बुरे कर्मों में,
तू करता नित मेरा अपमान,
तन धोया तूने कभी मन ना धोया,
मेरा खूब घटाया मान,
ढूंढे क्यों मुझे मंदिर मंदिर जाकर,
बोले ये भगवान,
कण कण में हूं मैं समाया रे मानव,
जान सके तो जान.....

वृत्ति दान दिखावे ऐसी पूजा पाठ की,
मानव दे जो तू छोड़,
हर तन मन कण में मैं हूं समाया,
तुझे मिल जाऊंगा हर मोड़,
मेरा ध्यान करने से पहले मानव,
रखे जो तू इतना ध्यान,
ढूंढे क्यों मुझे मंदिर मंदिर जाकर,
बोले ये भगवान,
कण कण में हूं मैं समाया रे मानव,
जान सके तो जान.....

© राजीव त्यागी नजफगढ़
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