हर्यो सखि, मो मन मोहन-लाल।
हौं यमुना-तट गई भरन घट, पनघट मिल्यो गुपाल।
सुघर सलोना, नंदडुठोना, टोना किय ततकाल।
परी ठगोरी, रति-रस बोरी, भोरी हौं ब्रजबाल।
नैन निगोरे, अति बरजोरे, जोरे नात रसाल।
अब मोहिं पल पल, परत न कहुँ कल, जलभर नैन विशाल।
अनजाने कृपालु मनमाने, ठाने हठ अस हाल॥
भावार्थ - (एक सखी का प्यारे श्यामसुन्दर से प्रथम मधुर मिलन एवं उसका एक सखी से कहना।)
अरी सखी! आज तो मनमोहन ने मेरा मन हर लिया है। मैं यमुना के किनारे जल भरने गई थी कि अचानक पनघट पर, वह छलिया मिल गया। अत्यन्त ही सुन्दर उस नंद के ढोटा ने तत्क्षण ही कुछ टोना सा कर दिया। मैं भोली- भाली गोपी उसकी ठगाई में आकर, उसके प्रेम में विभोर हो गई। इन हठीले नेत्रों ने भी हठपूर्वक उससे सदा के लिए परम मधुर नाता जोड़ लिया। अब उसके वियोग में एक-एक क्षण मुझे दुःखदाई हो रहा है एवं मेरी आँखों में बार-बार आँसू भरे जा रहे हैं।श्री कृपालु जी कहते हैं कि अरी सखी! जो भी बिना समझे-बूझे मनमाने ढंग से ऐसा चांचल्यपूर्ण हठ कर डालती है, उसकी ऐसी ही दशा होती है।
रचयिता : जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
पुस्तक : प्रेम रस मदिरा (मिलन-माधुरी)
पृष्ठ संख्या : 305
पद संख्या : 68
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