दुःख नगरी से प्रीत लगाई,
इसी से हरि सार ना मिले ।
सतसंगति को बिसराई,
इसी से हरि सार ना मिले ।।
भेज दिए हरि करन भजनिया ।
भा गई वासना की रागनिया ।।
तूने दुनिया में पाप कमाई ।
इसी से हरि....
झूठे रिश्तों में मन लागा ।
अब भी सोया तू नहीं जागा ।।
तूने हरि को नर बिसराई ।
इसी से हरि....
देह मनुज का पाकर बन्दे ।
प्रभु बिसार किया पाप के धन्धे ।।
कान्त जग से आसक्ति लगाई ।
इसी से हरि....
भजन रचना : दासानुदास श्रीकान्त दास जी महाराज ।