इस धरा का इस धरा पे,
सब धरा रह जायेगा,
भज गोविन्दम् मूढ़मते,
हरि सुमिरन काम ही आयेगा,
इस धरा का -------------
झूठे बंधन झूठे रिश्ते,
झूठी माया नगरी में,
साँस टूटी सब रिश्ता टूटा,
कोई काम न आयेगा,
इस धरा का---- ---------
पंचतत्व की कंचन काया,
मिट्टी होनी है इकदिन,
मुट्ठी बांधे आया जग में,
तू हाँथ पसारे जायेगा,
इस धरा का-------------
हरि नाम कलिकाल कल्पतरु,
भर ले झोली सुमिरन से,
चार लाखि चौरासी भव से,
बस सुमिरन पार लगायेगा,
इस धरा का--------------
रचना आभार: ज्योति नारायण पाठक
वाराणसी