है अब भी वक़्त संभल जा तू छोड़ के नादानी
मूरख प्राणी ओ मूरख प्राणी
है अब भी वक़्त संभल जा................
मांगने जाता है तू भिक्षा जिस ईश्वर के द्वारे पर
उस ईश्वर की खंडित मूर्ती रख देता चौराहे पर
कैसा दोगलापन है ये तेरा है कैसी ये गुमानी
मूरख प्राणी ओ मूरख प्राणी
है अब भी वक़्त संभल जा................
जिव्हा भी कहने से है डारती ऐसे ऐसी तू काम करे
ज़्यादा पाने की चाहत में तू करता खुद की हानि
मूरख प्राणी ओ मूरख प्राणी
है अब भी वक़्त संभल जा................
सच्चे मन से तूने कभी भी किया नहीं ईश्वर का ध्यान
अपने पतन का कारण तू खुद औरों को देता इलज़ाम
अपने कर्मो पर शर्मा तुझे क्या आती ना गिलानी
मूरख प्राणी ओ मूरख प्राणी
है अब भी वक़्त संभल जा.......