पिङ्गला गणिका का गीत : जग भोगों में मैं तो उलझ गई रे ।
जग भोगों में मैं तो उलझ गई रे ।
भजन बिनु रामा विगड़ गई रे ॥
बड़े दुःख की है बात, इन्द्रियों से हार गई ।
झूठे पुरुषों में मैं, सच्चा पुरुष बिसार गई ॥
लोभी अरु लम्पटों ने, तन को इस खरीद लिया ।
हाय रति सुख व धन की, चाह बावरी ने किया ।
विषय भोग से मैं तो जड़ भयी रे ।
भजन बिनु रामा...
तन एक घर है, अस्थियों के खंभे बाँस लगे ।
चाम रोएँ नखों से, खूब इसकी छत्त सजे ॥
नौ दरवाजे जिसमें, गंदगी निकले ही सदा ।
ऐसे तन पर भी कैसे, हो गई मैं मुर्ख फिदा ॥
जीवन मुक्तों में मैं पिछड़ गई रे ।
भजन बिनु रामा...
मेरे मूरख तू चित्त, आज ये बतला दे सही ।
कभी विषयों से कोई, तृप्त हुआ है भी कहीं ॥
प्रीति भोगों से किये, देवता-मनुष्य जभी ।
काल के गाल में, पड़के कराहते है तभी ॥
बुरे कर्म में ही उमर गई रे ।
भजन बिनु रामा...
जीव जगकूप में, विषयान्ध गिरता आश रहा ।
उस पर भी काल सर्प, मुख में अपने ग्रास रहा ॥
आज मैं धन्य हुई, आश सभी टूट गई ।
कान्त प्रभु की कृपा से, भोग जग की छूट गई ॥
अधम पिंगला भी बदल गई रे ।
भजन बिनु रामा...
भजन रचना : प.पू.गुरुदेव श्री श्रीकान्त दास जी महाराज ।
स्वर : सुभाष सिंह राजपूत जी ।