श्याम तुम! रसिकन नाम लजायो।
सब दिन ग्वार गँवारन सँग लै,
वन वन ढोर चरायो।
वेणी गुहत, केश उरझावत,
किन गुरु तोहिं सिखायो।
लखि सखियन हँसिहँ बस करु हटु,
लट छूटि मोहिं भायो।
कुसुम-गुच्छ इमि धरत शीश जनु,
शिव प्रतिमाहिं चढ़ायो।
व्यजन करत पुनि गिरत कुसुम जनु,
झंझावात चलायो।
धनि कृपालु तुम रसिक शिरोमणि,
धनि जिन तोहिं निभायो॥
भावार्थ- हे श्यामसुन्दर! तुमने रसिकों का नाम लज्जित कर दिया। सारे दिन तो अशिक्षित ग्वालों के साथ वनों में जा-जाकर गायों को चराया, तुममे रसिकता कहां से आयी। किशोरी जी कहती हैं कि तुम वेणी गूँथते हुए बालों को उलझा रहे हो। इस प्रकार की गूँथने की क्रिया तुमने किस गुरु से सीखी। बस करो, दूर बैठो, नहीं तो कोई सखी देख लेगी तो हम दोनों की हँसी बनायेगी। मुझे खुले बाल ही अच्छे लगते हैं। तुम तो मेरे सिर पर फूलों के गुच्छे इस प्रकार रखते हो, जैसे कोई शिवजी की मूर्ति पर चढ़ा हो। फिर पंखा भी इतने वेग से झलते हो, मानो आँधी चल रही हो, जिससे सब फूल गिर जाते हैं। कृपालु कहते हैं कि आप सरीखे ग्रामीण भी रसिक-शिरोमणि कहलाने का दावा करते हैं। धन्य है तुमको और धन्य है उन किशोरी जी को, जिन्होंने तुम्हें इस प्रकार निभा लिया।
पुस्तक : प्रेम रस मदिरा, निकुंज माधुरी
पृष्ठ संख्या : 273
कीर्तन/पद संख्या :27