सिय सियावल्लभ लाल की सखि आरति करिए ।
दंपति छवि अवलोकि के निज नयना धरिए ॥
अंग अनूप सुहावने पट भूषण राजे ।
नेह भरे दोउ रसिक सुभग सिंहासन साजे ॥१॥
मंद मंद मुस्काय के सिया गल भुज डारे ।
ललक लिए उर लाए प्राण प्रीतम निज प्यारे॥२॥
ललनागण बड़भागिनी लोचन फल पावें ।
सेवहिं भाव बढ़ाय के मुदमंगल गावें ॥३॥
चँवर छत्र कोइ लिए बाजने विपुल बजावें ।
प्रेम लता उर उमगि सुमन नचि नचि बरसावें ॥४॥