शब्द की चोट लगी मेरे मन को
भेद गया ये तन सारा हो मोह्पे साईं रंग डाला
कं कं में जड चेतन में मोहे रूप दिखे इक सुंदर
जिस के बिन मैं जी नही पाओ साईं वसे मेरे अंदर
पूजा अरचन सुमिरन कीर्तन निस दिन करता रहता
सब वैद बुला के मुझे दिखाए रोग नही कोई मिलता
ओश्दी मूल कही नही लागे कया करे वैद विचारा
मोह्पे साईं रंग डाला...
आठ पेहर चोसठ गली मन साईं में है लगता
कोई कहे अनुरागी कोई वैरागी है कहता
भगती सागर में डूबा मैं चुन चुन लाऊ मोती
जीवन में फेलाऊ उजियारा चले अलोकिक ज्योति
सुर नर मुनि और पीर हो लिया कौन परे है पारा
मोह्पे साईं रंग डाला
कैसो रंग रंगा रंग रेजा रंग नही ये मिट ता
इसी रंग जीवन में वारु एसा सुख मोहे मिलता
साईं साईं साईं जीब सदा है रट ती दुनिया मुझको पागल कहती
मैंने पाई भगती
केहत कबीर से रूह रंगियाँ सब रंग से रंग न्यारा
मोह्पे साईं रंग डाला