जो भजते मुझे भाव से, मैं उनका ही बन जाता।
बिना भाव से खूब पुकारे, कभी नहीं मैं आता।
सुन टेर भक्त की, मुझ से रहा न जाता॥1॥
शुद्ध हृदय हो अनन्य मन से, मेरा ध्यान लगाता।
उनके सारे योग क्षेम को, मैं ही स्वयं चलाता॥ 2 ॥
सब कुछ करदें भेंट भाव विन, मैं नहीं नजर उठाता।
करता मैं स्वीकार प्रेम से, जो एक पुष्प चढ़ाता॥ 3 ॥
मुझे नहीं परवाह वस्त्र की, नहीं अन्न-धन चाहता।
जो मेरा बन गया हृदय से, मैं उनको अपनाता॥4॥
कैसा भी दोषी हो मेरा, मैं नहिं कभी रिसाता।
जो करता अपराध भक्त का, मुझको नहिं सुहाता॥5॥
जो मेरे शरणागत आवे, आवागमन मिटाता।
"भागीरथ" आश्रयले हरिका, क्यों इतउत भटकाता॥6॥